कागज़ की कश्ती

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कागज़ की कश्ती


वीर और सिया बचपन के दोस्त थे। दोनों साथ में बड़े हुए, एक ही स्कूल में पढ़े, और एक-दूसरे के बिना अधूरे लगते थे। वीर हमेशा कहता, "सिया, हम हमेशा साथ रहेंगे, ठीक वैसे ही जैसे बारिश के पानी में कागज़ की कश्ती तैरती है—धीरे-धीरे, मगर साथ में।"

समय बीतता गया, और कब दोस्ती प्यार में बदल गई, उन्हें खुद नहीं पता चला। वीर के मन में एक सपना था—बड़ा अफसर बनने का, ताकि वो सिया को हर खुशी दे सके। सिया बस इतना चाहती थी कि वीर हमेशा उसके पास रहे।

एक दिन वीर ने सिया से कहा, "मैं शहर जा रहा हूँ, अपने सपनों को पूरा करने। बस कुछ साल, फिर तुम्हें अपनी दुल्हन बनाकर ले जाऊँगा।" सिया की आँखों में आँसू थे, मगर उसने मुस्कुराते हुए कहा, "ठीक है, मगर जल्दी आना। मैं इंतज़ार करूँगी।"

वीर शहर चला गया। पढ़ाई और करियर की दौड़ में वो इतना व्यस्त हो गया कि सिया को समय देना मुश्किल हो गया। धीरे-धीरे सिया की चिट्ठियाँ कम होने लगीं और फिर एक दिन पूरी तरह बंद हो गईं। वीर को लगा कि शायद सिया ने उसे भुला दिया।

पाँच साल बाद, वीर अपने गाँव लौटा, उम्मीदों से भरा कि वो सिया से मिलेगा और उसे अपना बना लेगा। लेकिन गाँव में जो सुना, उसने उसके पैरों तले ज़मीन खींच दी।

सिया की शादी हो चुकी थी।

वीर भागकर नदी किनारे पहुँचा, जहाँ वो दोनों बचपन में कागज़ की कश्तियाँ तैरा करते थे। वहाँ जाकर देखा—नदी के किनारे एक पुरानी कागज़ की कश्ती पड़ी थी, जिसमें धुंधले अक्षरों में लिखा था:

"वीर, मैं अब भी तेरा इंतज़ार कर रही हूँ। मगर इस बार, अगले जन्म में..."

वीर ने उस कागज़ की कश्ती को पानी में बहा दिया और दूर तक उसे डूबते हुए देखता रहा... जैसे उसका प्यार डूब गया हो।


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