एक छोटे से गाँव में अरविंद नाम का एक बूढ़ा आदमी रहता था। उसने अपनी पूरी ज़िंदगी उस गाँव में बिताई थी, और उसका दिल उस ज़मीन से जुड़ा हुआ था, जिसे वह बेहद प्यार करता था। अरविंद का दिन बहुत साधारण था—वह सुबह जल्दी उठता, अपने बाग़ीचे का काम करता, और शाम को खिड़की से सूरज डूबते हुए देखता।
अरविंद की ज़िंदगी का सबसे बड़ा सहारा उसकी बेटी मीरा थी। मीरा उसके लिए सब कुछ थी, उसकी ज़िंदगी का कारण। उसने मीरा को अपनी पत्नी के निधन के बाद अकेले ही पाला था, और अपनी सारी ममता और प्यार उसे दिया था। दोनों का रिश्ता बहुत मजबूत था, और अरविंद अक्सर मीरा से कहता, "तुम मेरी दुनिया हो, तुम हो तो मैं हूँ।"
समय बीतने के साथ, मीरा बड़ी हुई, उसने कड़ी मेहनत की और एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में स्कॉलरशिप हासिल की, जो दूर था। अरविंद ने उसे हमेशा बढ़ावा दिया, हालांकि उसे एहसास था कि मीरा का जाना उसके लिए कितना मुश्किल होगा। फिर भी, वह जानता था कि मीरा के पास अपने सपने पूरे करने का मौका था, और उसे हमेशा यही कहता, "जाओ, अपने सपनों का पीछा करो।"
एक दिन, जब पतझड़ की हवा तेज़ चल रही थी, मीरा ने अरविंद से अलविदा लिया। वह पल आ गया था। अरविंद दरवाजे पर खड़ा था, उसकी झुर्रीदार हाथ दरवाजे के फ्रेम को थामे हुए थे, और उसकी आँखों में गर्व और दुःख का मिलाजुला भाव था। “मैं मिलने आऊँगी, पापा, वादा है,” मीरा की आवाज़ में हल्का सा कांप था।
"मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा, मीरा," अरविंद ने कहा, उसकी आवाज़ में गहरी भावना थी। "जाओ और अपने सपनों को पूरा करो, लेकिन याद रखना, चाहे तुम कहीं भी रहो, तुम हमेशा मेरी छोटी बेटी रहोगी।"
एक आखिरी गले लगाने के बाद, मीरा चली गई। दिन हफ्तों में बदल गए, हफ्ते महीनों में, लेकिन मीरा के पत्र आने कम होते गए और फिर पूरी तरह से बंद हो गए। अरविंद ने धैर्य से इंतजार किया, उसकी उम्मीद कभी कम नहीं हुई, लेकिन हर गुजरता दिन और भी भारी होता गया। घर में सन्नाटा गहरा गया, और अरविंद के दिल में मीरा की यादें और भी गहरी होती चली गईं।
एक दिन, जब अरविंद ने हमेशा की तरह खिड़की से सूरज डूबते हुए देखा, उसकी आँखों में आंसू थे, और उसकी खामोशी ने सब कुछ कह दिया।